आदिकाल से ही देवताओं को प्रसन्न करने हेतु संगीत और नृत्य का प्रयोग किया जाता था। उसी समृद्ध इतिहास की झांकी आज उत्तराखंड के लोकगीत व संगीत में नजर आती है।
यहां का पारंपरिक लोकगीत और संगीत इस धरा को सांस्कृतिक कला से जोड़ता है। जिस तरह पुरातन की कई परंपराएं आज भी मानी जाती हैं, ठीक उसी तरह इस धरती में कला और संगीत को ईश्वर की आराधना के समान माना जाता है।
आपको बता दें केदारखंड के इस क्षेत्र में कला, देवताओं के पूजन एवं कहानियों से आभूषित दिखाई देती है।
उत्तराखंड के पारंपरिक लोक गीत और संगीत की शोभा देखते ही बनती है। इतिहास की एक ऐसी झलक इनके संगीत में दिखाई देती है जो हर किसी को अपनी सम्मोहन में कर सकती है।
संगीत की इस कला को सिर्फ उत्तराखंड की पहचान ही नहीं बल्कि भारत की संस्कृति की एक अमिट कहानी कहा जाता है।
इस कहानी में इतिहास से लेकर आज तक कई किरदार यूं ही जुड़ते चले गए. उत्तराखंड की धरती ने कई ऐसे संगीतकारों को जाया जिन्हें सुन के आज भी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
वहीं उत्तराखंड के सांस्कृतिक लोकगीत और लोक संगीत में तार्किक अंतर क्या है वो समझिए:
लोकगीत:
कई गायक लोकगीत के माध्यम से समाज के बीच समस्या सादगी और भावना का प्रदर्शन करते हैं। इसके द्वारा ज्यादातर जिस समाज में लोग रह रहे हैं वहां की मानसिकता की एक झलक साफ देखी जा सकती है।
लोकगीत एक माध्यम है लोगों के बीच अपनी बात एक अनोखे ढंग से रखने का. फिर चाहे वो प्रेम हो या क्षेत्र में आई कोई भीषण विपदा। फिर चाहे वो प्रेम हो बिछोह हो या फिर किसी वीर की कोई गाथा।
लोकगीत में इन सभी सामाजिक परंपराओं और वास्तविकताओं के विषय में साफ़ बोलते हैं।
गांव-गांव में काम करते हुए या जंगल में लकड़ी खट्टा करते हुए महिलाएं इन लोकगीतों को गाती है। इस समूह गायन की कई शैलियां है।
आपको बता दें कि ‘खुदेड’ गाने में दुल्हन की अपने पिता के घर से दूर होने की पीड़ा को जाहिर किया गया है। वही ‘मंगल’ गाने विवाह और अन्य संस्कार समारोह के अवसर पर सुनने मिलते हैं।
लोक संगीत:
लोक संगीत की बात करें तो आमतौर पर ये लयबद्ध होता है जो लोक नृत्य की गतिशील शैली को परिलक्षित करता है। ये सभी गीत संस्कार से संबंधित होते हैं और बेहद मधुर होते हैं।
साथ ही इन्हें संगीत वाद्य यंत्रों के तालमेल के साथ प्रस्तुत किया जाता है। वही कुछ पारंपरिक लोक संगीत वाद्य यंत्र है- ढोल और दमाऊ , दौर और थाली, तुर्री, ढोलकी, मसक बाजा, भंकोरा, रणसिंघा आदि।
वही आज के समय में हरमोनियम और तबले का भी उपयोग किया जाता है।
उत्तराखंड की लोक गीत और संगीत में इन पारंपरिक वाद्य यंत्रों का बहुत बड़ा योगदान है जिसमें और ‘औजी’, ‘बधी’, ‘बाजगी’ का योगदान सर्वश्रेष्ठ है।
‘ढोल और दमाऊ’ को एक साथ ‘औजी’ द्वारा बजाया जाता है। वहीं डौर और थाली को घड़ियाल के मौके पर जागर गान और नृत्य के साथ बजाया जाता।
इसके साथ ही वाद्ययंत्र या तो पीतल या तांबे से बने होते हैं और इन्हें देव पूजन के समय पर भंकोरा ऊंची जाति ही बजाती है।
ऐसे बहुत से पारंपरिक लोकगीत व संगीत उत्तराखंड में समय-समय पर आयोजित किए जाते हैं। इन सभी गीतों का अपना एक खास महत्व है। उन सभी महत्वपूर्ण लोकगीत का संगीत के बारे में जानिए:
▪️छोपाटी:
ये वो प्रेम गीत है जिससे प्रश्न एवं उत्तर के रूप में पुरुष और महिलाओं के द्वारा गाया जाता है। इसमें दोनों के बीच एक संवाद को दर्शाया जाता है। ये लोक संगीत टिहरी गढ़वाल के रावेन- जौनपुर क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय है।
▪️बसन्तीः
यह गीत बसंत ऋतु के आगमन के समय गाया जाता है। जब गढ़वाल पर्वतों की घाटियों में नए फूल खिलते हैं तब बसंती लोक नृत्यों को गाया जाता है। इनका गायन अकेले या समूहों में किया जाता है।
▪️चौन फूला एवं झुमेलाः
इस गीत को महिलाओं द्वारा गाया जाता है। लेकिन कभी-कभी मिश्रित रूप से भी निष्पादित किया जाता है। इस गीत में पंक्ति बनाकर बाजू से बाजू पकड़े हुए सामूहिक नृत्य के साथ इसे गाया जाता है।
चौनफूला लोकगीतों का सृजन कई अलग-अलग अवसरों पर प्रकृति का गुणगान गाने के लिए हुआ है। चौनफूला एवं झुमेला दोनों ही मौसमी रूप है जिन्हे बसंन्त पंचमी से संक्रान्ती या बैसाखी के बीच निष्पादित किया जाता है।
▪️मंगलः
मंगल गीतों को विवाह के अवसर पर गाया जाता है। ये गीत मूल से आराधना गीत ही होते हैं। विवाह समारोह में शास्त्रों के मुताबिक पुरोहित के साथ-साथ इन गीतों को संस्कृत के श्लोकों में गाते हैं।
▪️पूजा लोक गीतः
इस लोकगीत को पारिवारिक देवताओं की पूजा के लिए गाया जाता है। इस क्षेत्र में तंत्र मंत्र से संबंधित ऐसे कई लोकगीत भी गाए जाते हैं जिनका मकसद अपदूतों से मनुष्य की रक्षा करना है।
▪️जग्गार (जागर):
इसका संबंध भूत एवं प्रेत आत्माओं की पूजा से है। कभी-कभी इस लोकगीत को लोग मृत्यु के साथ मिश्रित रूप में गाया जाता है। वही कभी कभी जागर अलग-अलग देवी-देवताओं के सम्मान के लिए पूजा लोकगीतों के रूप में गाया जाता है।
▪️बाजू बन्दः
इस लोकगीत का अपना एक अलग महत्व है। इसे चरवाहों के मध्य प्रेम एवं बलिदान के प्रतीक के रुप में गाया जाता हैं। ये गीत प्रेमी और प्रेमिका के बीच प्रेम को प्रदर्शित करने के स्वरूप में गाया जाता है।
▪️खुदेड़:
लोकगीत के द्वारा अपने पति से पृथक हुई महिला के दुख का वर्णन किया गया है। इसमें पीड़ित महिला अपशब्दों का प्रयोग करके उन परिस्थितियों का वर्णन करती है जिसके कारण वो अपने पति से पृथक हुई।
▪️छुराः
ये गीत चरवाहों द्वारा गाया जाता है। इन लोकगीतों में एक वृद्ध व्यक्ति भेड़ों और बकरियों को चराने के अपने अनूठे अनुभव का ध्यान अपने बच्चों को देते हैं।
अब बात करते हैं उन संगीत कलाकारों की जो उत्तराखंड की संस्कृति में कभी न खत्म होने वाली छाप छोड़ गए हैं:
मोहन उप्रेती:

ये कुमाऊं के एक मशहूर लोक गायक हैं। इन्हें इनके नंदा देवी जागर और राजुला मालूशाही गाथा गीत के लिए खास जाना जाता है,
साथ ही इनके प्रतिष्ठित कुमाऊनी गीत दे दो पाको बारो मासा को उत्तराखंड के सांस्कृतिक गीत के रूप में भी जाना जाता है।
ऐसा बताया जाता है कि यह गान भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी बहुत पसन्द था।
इस गाने को पूर्व प्रधानमंत्री ने एक बैंड मार्च में सुना था क्योंकि ये गाना भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट का आधिकारिक रेजिमेंट गीत भी है।
एक प्रतिष्ठित गाने को उत्तराखंड के कई संगीत व नृत्य कलाकारों ने कवर किया है।
नरेंद्र सिंह नेगी:

इन्होंने उत्तराखंड के लोकप्रिय गायन की हर शैली में गाया है। फिर चाहे वो जागर हो या चौमासा, थड्या हो या प्लेबैक।
इनकी इसी कला के कारण इन्हें सभी गायकों से एक अलग पहचान मिली. राज्य में उन्होंने प्रचलित भाषाओं जैसे गढ़वाली, रावलती, गढ़वाली आदि में गाया है।
इन्होंने अपने संगीत करियर की शुरुआत ‘गढ़वाली गीतमाला’ रिलीज करके की जो दस अलग-अलग हिस्सों में आई. इनका पहला एल्बम ‘बुरान्स’ नामक शीर्षक से आया था।
बुरांस पहाड़ियों पर पाया जाने वाला एक प्रसिद्ध फूल है जिस पर इन्होंने गीत गाया। साथ ही इन्होंने सबसे ज्यादा सुपरहिट एल्बम जारी किए हैं।
आपको बता दें कि इन्हें उत्तराखंड की ध्वनियों और लय का विकास करने और लोकप्रिय बनाने में प्रेरणास्त्रोत के रूप में माना जाता है।
गोपाल बाबू गोस्वामी:

इनको इनकी सुरीली मधुर आवाज के लिए उत्तराखंड में एक किंवदंती माना जाता है।
साथ ही उन्होंने सशस्त्र बलों के सदस्यों और उनके परिवारजनों के जीवन पर उनके गीत जिनका नाम है- जैसे कैले बाजे मुरुली और घुघुति ना बसा, बहुत प्रसिद्धि थे।
ऐसा कहा जाता है कि जब यह गीत ऑल इंडिया रेडियो पर सुनाए जाते थे तो महिलाओं के साथ उनके पति भी भावुक हो जाते थे।
साथी अपने पतियों को याद करते हुए जब उन्होंने गोपाल दा की मनमोहक और आत्मा को छू लेने वाली आवाज सुनी तो वे रोते थे।
चंदर सिंह राही:

उत्तराखंड के संगीत के प्रति असीम भक्ति के लिए इन्हें ‘उत्तराखंड लोक संगीत के भीष्म पितामह’ कहा जाता है। इन्होंने उत्तराखंड के 25,100 से ज्यादा लोकगीतों को क्यूरेट किया।
साथ ही गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा के 500 से भी ज्यादा गीतों में अपनी आवाज दी। इनको एक प्रेरणादायक संगीतकार, कवि और गीतकार के तौर पर जाना जाता है।
इन्हें खासकर अपने उत्तराखंडी गीतों के लिए जाना जाता है, जिनमें ‘सरग तारा’, ‘सौली घुरा घुर’, ‘भाना है रंगीली भाना’, ‘सात समुंदर पार’, ‘हिल्मा चंडी कू’ और ‘जरा थंडू चला दी’ शामिल हैं।
गढ़वाली भाषा में ‘तेरी मुखी’ नामक ग़ज़ल गाने वाले ये पहले गायक रहे। कई गायकों के लिए ये प्रेरणा के पात्र हैं।
बसंती बिष्ट:

ये पहली महिला जाकर गायिका है। उत्तराखंड में कई मौकों पर देवी-देवताओं की स्तुति जाकर के ज़रिए की जाती है।
बसंती बिष्ट जी ने ना सिर्फ जाकर की परंपरा को आगे बढ़ाया बल्कि संपूर्ण देश को इसका महत्व भी समझाया। यही कारण है कि इन्हें उत्तराखंड की परंपराओं और संस्कृति को संजोने के लिए पद्मश्री का सम्मान दिया गया।
उत्तराखंड की धरोहर के ऋणी संपूर्ण देश वासी हैं। जिस प्रकार से लोक गीत और संगीत की निर्मल धारा निरंतर वहां से बहती रही है उसमें एक बार ही सही परंतु हर देशवासी को इस धारा में डुबकी जरूर लगानी चाहिए।
खासकर कला और संगीत में रुचि रखने वालों के लिए तो यहां की संस्कृति कुबेर के भंडार के समान है।
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