जानिए आखिर क्या है उत्तराखंड में कुणिंद राजवंश का इतिहास | Kuninda Dynasty

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उत्तराखंड एक घने जंगल और ऊंची ऊंची चोटियों वाले पहाड़ों का क्षेत्र था। इस राज्य का अधिकांश भाग वीरान जंगलों से भरा हुआ था। इसी के कारण यहां किसी स्थाई राज्य की के स्थापित होने की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है।

वहीं कुछ बहुत सिक्कों साहित्यिक स्रोत अभिलेखों के आधार पर ही इसके प्राचीन इतिहास के सूत्रों को जोड़ा गया है अर्थात कुणिंद वंश का इतिहास भी क्रमबद्ध नहीं है। लेकीन इस वंश को लेकर कई तरह की बातें और दावे किए जाते हैं।

आपको बता दें कि कुणिंद वंश उत्तराखंड पर अपना शासन करने वाला प्रथम प्राचीन राजवंश है। इस वंश का प्रारंभिक समय ऋग्वैदिक काल का माना जाता है। श्री वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में कुणिंदो की जानकारी मिलती है तथा विष्णु पुराण में भी कुणिंद को कुणिंद पल्यकस्य से कहा गया है।

कुणिंद राजवंश है या नहीं इसकी साक्षी के रूप में अभी तक केवल 5 अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों में से एक अभिलेख मथुरा और बाकी के 4 भरहुत से प्राप्त हुए हैं। वर्तमान समय में मथुरा उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित है।

जबकि भरहूत अब मध्य प्रदेश का हिस्सा है। कुणिंद वंश का वर्णन महाभारत के सभा पर्व आरण्यक पर्व एवं भीष्म पर्व तीनों में ही देखने को मिलता है। 

जितने भी साक्ष अभी तक मिले हैं उनके आधार पर यह बात कही जा सकती है कि प्रारंभिक कुणिंदो ने राजाराम की तरह है शांतिप्रिय शासन व्यवस्था को बनाया था।

इस राजवंश ने अपने राज्य की सीमा का विस्तार करने की अपेक्षा पहाड़ों पर ही बहुत ही सुव्यवस्थित और सुरम्य तरीके से शासन को बनाए रखा। कुणिंदो का निवास स्थान मध्य हिमालय क्षेत्र से लेकर के काली नदी की घाटी और यमुना घाटी (कालिंदी घाटी) तक था।

कुणिंद वंश का शासन काल बहुत ही लंबा था, 1500 ईसा पूर्व से 300 ईसवी तक। जो कि किसी राजवंश द्वारा एक लंबी अवधि है। इसी कारण से इस शासनकाल को तीन भागों में विभाजित किया गया है।

प्राचीन कुणिंद (1500 – 900 ईसा पूर्व)

प्राचीन काल में भारत में कोई भी ऐसा बहुत बड़ा जनपद नहीं था। उस समय पर पूरा भारत कई छोटे-छोटे प्रांतों में बैठा हुआ था। ये उस समय की बात है जब लोगों को भारत में लोहे की जानकारी भी नहीं थी।

तब ये सभी प्रांत छोटे से क्षेत्र पर शासन व्यवस्था स्थापित करके अपने उस छोटे से क्षेत्र की ही रक्षा करते थे। ऐसा ही एक राजवंश उत्तराखंड के मध्य भाग में शासन स्थापित करता है, जिसका वर्णन विष्णु पुराण में भी देखने को मिलता है।

कुणिंदो को विष्णु पुराण में पल्यकस्य कहा गया है। रामायण के किष्किंधा कांड में भी इनका उल्लेख है। प्राचीन कुणिंदो की सबसे अधिक जानकारी महाभारत के सभा पर्व भीष्म पर्व एवं आरण्यक पर्व से मिलती है।

पाणिनी की रचना अष्टाध्यायी में कुणिंदो को कुलुन कहा गया है। इसके अतिरिक्त राज्य में खस, तंगण, किस्म पुरुष आदि जनजातियां निवास करती थी।

कुणिंदों को महाभारत में द्विजश्रेष्ठ कहा गया है। महाभारत के सभा पर्व, आरण्यक पर्व एवं भीष्म पर्व में  कुणिंद राजवंश के राजा सुबाहु का उल्लेख देखने मिलता है। जिसने गोविंदा कुणिधांधपति की उपाधि ग्रहण की थी।

जिसने अपने राज्य की राजधानी को श्रीनगर (पौड़ी) में स्थापित किया था। पाणिनी की अष्टाध्यायी महाकाव्य के अनुसार महाभारत के युद्ध में राजा सुबाहु ने पांडवों का साथ दिया था और अपने वनवास से लौटते वक्त पांडवों ने राजा सुबाहु के महल में शरण ली थी।

राजा सुबाहु के पश्चात इनके पुत्र राजा विराट ने राजकाज संभाला और अपनी राजधानी विराटगढ़ी स्थापित की।

मध्यवर्ती कुणिंद (900 – 200 ईसा पूर्व)

मध्यवर्ती कुणिंदो के इतिहास की जानकारी किसी को भी विस्तार पूर्वक नहीं मिलती है किंतु प्राप्त किए गए साक्ष्यों के हिसाब से ये माना जा सकता है कि धीरे-धीरे प्रांतों का विकास शुरू हुआ।

1000 ईसा पूर्व लोहे के अविष्कार ने भारत को एक नई पहचान दिलाई इससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि हुई तथा दूसरी ओर घातक हथियारों का निर्माण भी प्रारंभ हो गया। फिर इसके पश्चात छोटे-छोटे प्रांतों की रक्षा का दायित्व बढ़ गया और राज्य की सीमा विस्तार नीति का उदय हुआ।

उत्तराखंड के मध्य हिमालय क्षेत्र में भी ये सभी घटनाएं घटित हो रही थी। जिस कारण छोटे छोटे प्रांत अब जनपद में तब्दील होने लगे थे।

समस्त कुमाऊं 3 बड़े जनपदों में बट गया था:

▪️शत्रुघ्न राज्य – इस राज्य के पूर्व दिशा में गंगा बहती थी और उत्तर दिशा में ऊंचे ऊंचे पर्वत विद्यमान है। शत्रुघ्न राज्य से जमुना नदी भी गुजरती थी।

▪️पौरवों का ब्रह्मपुर राज्य – ये राज गंगा से पहले करनाली नदी (हरियाणा) के क्षेत्र तक फैला था। इसकी उत्तरी सीमा पर हिमालय पर्वत था।

▪️गोविषाण राज्य – यह राज्य ब्रह्मापुर से दक्षिण की ओर स्थित था। वहीं वर्तमान काशीपुर क्षेत्र के अलावा रामपुर एवं पीलीभीत जनपद तक पश्चिम में रामगंगा से शारदा नदी तक फैला हुआ था।

धीरे धीरे जब जनपद बढ़ने लगे तब जनपदों को नियंत्रित करने के लिए सत्ताएं संघर्ष करने लगी और फिर कई जनपदों को नियंत्रित करके महाजनपद का निर्माण किया गया। इस तरह 600 ईसा पूर्व भारत में 16 महाजनपदों का निर्माण हुआ। जिनका नाम है – काशी, कौशल, अंग, मगध, वज्जी, मल्ल, चेदी, अवंती, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, गांधार, कोशल, कंबोज।

महाभारत के आदि पर्व में कुरु महाजनपद को उत्तर कुरु तथा दक्षिण कुरु का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। वर्तमान उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल मंडल उत्तर कुरु के अंग थे।

कुणिंद राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र थे किंतु कुरु राज्य को समय-समय पर भेंट प्रदान करते रहते थे। दरअसल मध्यवर्ती कुणिंद शासकों ने एक अपनी राजधानी कालकूट में स्थापित की जिसका उल्लेख हमें कालसी अभिलेख (देहरादून) में मिलता है।

इस अभिलेख में कुणिंदो को पुलिंदा कहा गया है। वहीं इस कालसी अभिलेख का निर्माण मौर्य वंश के सम्राट कहे जाने वाले अशोक ने कराया था। मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने पहली बार भारत में एकछत्र शासन की स्थापना की थी।

जिसके बाद उत्तराखंड के सभी जनपद मौर्य वंश के अधीन हो गए थे। इससे यह ज्ञात होता है कि प्रारंभ में कुणिंद लोग मौर्य वंश के अधीन थे।

उत्तरवर्ती कुणिंद (200 ईसा पूर्व – 300 ईसवी)

उत्तरवर्ती कुणिंद शासकों से संबंधित कुणिंद कालीन सिक्के सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। जिनमें कुणिंद वंश के अनेकों राजाओं का नाम देखने मिलता है।

जबकि कुणिंद वंश के परवर्ती शासकों के राजाओं के बनाए सिक्के में केवल कुणिंद लिखा मिलता है। प्राचीन काल के सिक्कों (मुद्राओं) से किसी भी वंश की राजनैतिक, धार्मिक, व आर्थिक जानकारी मिलती है।

कुणिंद कालीन सिक्के

▪️अमोघभूति प्रकार: अमोघभूति को कुणिंद वंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है। इसमें भी व्यापार के उद्देश्य से चांदी और तांबे की मुद्राओं का निर्माण कराया था। इन सिक्कों में खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि में राज्ञः कुणिंदस्य अमोघभूति लिखवाया तथा सिक्के के दूसरी तरफ शिव, नंदी और त्रिशूल की छाप बनवाई।

▪️अल्मोड़ा प्रकार: कुणिंद वंश से संबंधित सिक्के अल्मोड़ा में प्राप्त होने के कारण इन्हें अल्मोड़ा प्रकार कहा जाता है। इन सिक्कों पर मानव मूर्ति और कूबड़ वाले बैल की छाप मिलती है।

यहां पर अधिकतर सिक्कों को तांबे से बना पाया गया है। जिन पर चार राजाओं के नाम मिलते हैं, शिवदत्त, शिपाली, हरिदत्त और भागवत। वर्तमान में इन सिक्कों को लंदन के संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।

▪️छ्त्रेश्वर प्रकार: ऐसी मान्यता है कि इन सिक्कों का निर्माण कुणिंद वंश के शासक छत्रेश्वर ने कराया था। ये सिक्के भी तांबा धातु के बनाए गए थे और सिक्कों में ब्राह्मी लिपि में भगवत छत्रेश्वर लिखवाया। इन मुद्राओं पर कुषाण शैली का प्रभाव देखने को मिलता है।

सिक्कों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इतिहासकार ने के कुणिंद के आराध्य देव भगवान शिव को कहा है। ज्ञात मुद्राओं के अनुसार राजा छत्रेश्वर, राजा भाबू व रावण को इस वंश का अंतिम शासक माना गया है।

कर्तपुर राज्य

उत्तरवर्ती कुणिंद शासकों के पश्चात उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश तथा रोहिलखंड का उत्तरी भाग में गुप्त वंश के सम्राट समुद्रगुप्त ने अधिकार कर लिया जिसका उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में कर्तपुर राज्य के नाम से किया गया है। इतिहासकारों के अनुसार कर्तपुर राज्य के संस्थापक कुणिंद लोग ही कहे गए हैं।

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