पाषाण काल या प्रगैतिहासिक काल वो काल है, जिसकी जानकारी के लिए लिखित साधनों का अभाव है। इसे प्रस्तर युग भी कहा जाता है। जिसमें संपूर्ण मानव जाति असभ्य जीवन जी रही थी। उस काल को प्रागैतिहासिक काल की संज्ञा दी गयी है। प्रागैतिहासिक काल का अर्थ होता है ‘इतिहास से पहले का युग’।
इस काल के विषय में कोई लिखित विवरण नहीं मिलता केवल स्रोतों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है। इस काल के विषय की जानकारी पाषाण उपकरणों तथा मिट्टी के बर्तनों व खिलौनों से प्राप्त होती है।
पाषाण संस्कृति
मानव सभ्यता के विकास में पाषाणों का बहुत अधिक महत्त्व रहा है। पाषाण से ही मनुष्य ने भोजन संग्रहित किया, पाषाणों से ही आवास बनाया, पाषाणों से ही कला सीखी, पाषाणों से ही नए नए आविष्कार किये गये, प्राचीनतम कलाकृतियाँ पाषाणों पर पाषाणों से ही उत्कीर्ण होती थी।
पाषाण से ही मानव ने आविष्कारों की ऊर्जा आग की खोज की । समस्त औजार, हथियार और आश्रय मानव ने पाषाणों से ही प्राप्त किये। पत्थर के उपकरणों की बनावट तथा जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर पाषाण युग को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
- पुरापाषाण काल सन् 5,00,000 ई. पू. से 50,000ई. पू.
- मध्यपाषाण काल सन् 10,000 ई. पू. से 7000 ई. पू.
- नवपाषाण काल सन् 7000 ई. पू. से 2500 ई. पू.
पुरापाषाण काल
इस काल को तीन उपभागोंं में बांटा जा सकता है।
i) निम्न पुरापाषाण काल
ii) मध्य पुरापाषाण काल
iii) उच्च पुरापाषाण काल
i) निम्न पुरापाषाण काल
इस युग का काल 5,00,000 से 50,000 ई.पू. तक है। निम्न पुरापाषाण काल में मानव जीवन अस्थिर था। उसके आवास, भोजन या वस्त्र आदि की व्यवस्था नहीं थी। मानव समूह में शिकार कर अपने लिए भोजन का संग्रह करता था।
इस काल का अधिकांश समय हिमयुग के अन्तर्गत व्यतीत हुआ। इस युग के प्रमुख हथियार – हस्त कुठार , खड़ग उपकरण , कोर एवं फलक उपकरण और विदारणियाँ। इस युग के हथियार बेडौल और भौंडी आकृति वाले हुआ करते थे।
इस संस्कृति के दो प्रमुख केन्द्र – उत्तर पश्चिम में सोहन (पाकिस्तान में सोहन नदी के किनारे) या मद्रासियन संस्कृति।इस समय का मानव भोजन का संग्रह करता था, भोजन उत्पादन नहीं करता था।
ii) मध्य पुरापाषाण काल
इस युग का काल 50,000 से 40,000 ई.पू. तक है। ये युग में मनुष्य ने अपने उपकरणों को अधिक सुन्दर और उपयोगी बनाया। अब क्वार्टजाइट की जगह जैस्पर, चर्ट आदि चमकीले पत्थरों की सहायता से फलक-हथियार बनाये जाने लगे थे। इस काल की संस्कृति को फलक संस्कृति नाम दिया।
इस काल में फलक से निर्मित हथियारों में मुख्य हथियार बेधक, खुरचनी, तथा बेधनी आदि हैं। इस काल में कहीं-कहीं हस्त कुठार भी प्राप्त हुए हैं।
भारत में इस संस्कृति के अवशेष उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र की अपेक्षा प्रायद्वीप क्षेत्र से अधिक प्राप्त हुए हैं। इस संस्कृति के प्रमुख स्थल बेलन घाटी (उत्तरप्रदेश), ओडिशा, आंध्रप्रदेश, कृष्णा घाटी (कर्नाटक), धसान तथा बेतवा घाटी (मध्यप्रदेश), सोन घाटी (मध्यप्रदेश), नेवासा (महाराष्ट्र) आदि हैं।
सिन्ध, राजस्थान, गुजरात, ओडिशा आदि क्षेत्रों में भी इस संस्कति के प्रमाण देखने को मिलते हैं। हालांकि मानव इस काल में भी भोजन-संग्राहक ही था, फिर भी अब ये गुफाओं और कंदराओं में रहने लगा था। इस काल में आग का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा था और मृतक संस्कार भी इसी काल से प्रचलित हुआ।
iii) उच्च-पुरापाषाण काल
इस युग का काल 40,000 से 10,000 ई.पू. तक है। इसका विस्तार हिमयुग की उस अंतिम अवस्था के साथ हुआ जब जलवायु अपेक्षा के अनुसार गर्म हो गयी थी।
विश्व प्रसिद्ध संदर्भ में इस काल की दो विलक्षणताएँ हैं-
- नये चकमक उद्योग की स्थापना और ज्ञानी मानव या आधुनिक मानव का उदय।इस काल में मानव विकास की प्रक्रिया और भी अधिक तेजी से हुई।
- ब्लेडों (पत्थरों के पतले फलकों) से हथियार बनाने की कला मध्य पुरापाषाण काल में भी प्रचलित थी, लेकिन इस समय इनका प्रयोग और अधिक बढ़ गया था।ब्लेडों से चाकू, बेधक, खुरचनी, तथा बेधनी आदि हथियार इस काल में बनने लगे थे। इस काल में पत्थरों के अतिरिक्त हड्डी एवं हाथी दाँत के उपकरण भी बनने शुरू हो गए थे।
भारत में इस संस्कृति से संबद्ध प्रमुख स्थल – बेलन घाटी (उत्तरप्रदेश), रेनीगुटा, येरंगोंडपलेम, मुच्छलता, चिंतामनुगावी, बेटमचेल (आंध्रप्रदेश), शोरापुर, दोआब, बीजापुर (कर्नाटक), पाटन, इनामगाँव (महाराष्ट्र), सोनघाटी (मध्यप्रदेश), विसादी (गुजरात), सिंहभूम (झारखंड) आदि।
इस काल में भी मनुष्य की जीविका का मुख्य साधन शिकार ही था, परन्तु सामुदायिक जीवन का विकास इस समय ज्यादा सुदृढ़ हुआ।
इस काल में यद्यपि सामाजिक असमानताओं एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति की भावना का उदय अभी नहीं हुआ था लेकिन मोटे तौर पर पुरुषों एवं महिलाओं में श्रम-विभाजन शुरु हो चुका था। कला एवं धर्म के प्रति भी लोगों की आभिरुचि बढ़ने लगी थी। इस काल में नक्काशी और चित्रकारी दोनों रूपों में कला व्यापक रूप से देखने को मिलती है।
मध्यपाषाण काल
इस युग का काल ten thousand ई.पू. से 7000 ई.पू. तक है। यह काल संक्रांति काल था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फ्रांस के मॉस द अजिल नामक स्थान से कुछ ऐसे उपकरण प्रकाश में आये, जिन्होंने इस धारणा की पुष्टि की कि पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के मध्य अंतराल था। ये काल नवपाषाण युग का अग्रगामी था। इस काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी मनुष्य का पशुपालक बनना।
इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, इसलिए इनको लघु पाषाणोपकरण कहा जाता था। लघु पाषाणोपकरण दो प्रकार के हैं- अज्यामितिक लघु पाषाणोपकरण तथा ज्यामितिक लघु पाषाणोपकरण। पाषाण उपकरणों के निर्माण के लिए क्वार्टजाइट के स्थान पर जैस्पर, एजेट, चर्ट आदि। कच्चे पदार्थ का प्रयोग इस काल में हो गया था। इस समय के हथियारों में प्रमुख हथियार इकधार फलक, बेधनी, अर्द्धचन्द्राकार तथा समलम्ब।
नवपाषाण काल
इस युग का काल 7000 ई.पू. से 2500 ई.पू. तक है।पाषाण काल में मानव जीवन के विकास की सबसे प्रमुख सीढ़ी नवपाषाणकालीन संस्कृति थी। हालांकि कालक्रम के हिसाब से ये युग काफी छोटा है, परंतु समस्त क्रांतिकारी परिवर्तन इसी युग में हुए।
इस काल में मनुष्य भोजन-संग्राहक से भोजन उत्पादक बन गया था। अब स्थायी बस्तियों की स्थापना होने लगी। सभी एक ही स्थान पर रहने लगे थे। इसी कारण से कृषि एवं पशुपालन का विकास शुरू हुआ। मिट्टी के बर्तन और अन्य उपयोगी सामान तैयार किये गये। फलस्वरुप शिल्प एवं व्यवसाय की प्रगति हुई।
इस काल में मानव ने सबसे पहली बार कृषि कार्य करना सीखा था। कृषि ने अनाज के संग्रह, भोजन की पद्धति हेतु मृदभांड़ों(मिट्टी के बर्तन) का निर्माण प्रारम्भ किया। इस काल में कृषि कार्य का पहला प्रमाण मेहरगढ़ से प्राप्त होता है। यद्यपि इस काल तक धातु के हथियारों का बनना नहीं शुरू हुआ था, तथापि पत्थर के ही हथियार पहले की अपेक्षा और अधिक उपयोगी एवं सुडौल बनाए जाने लगे थे। ये हथियार अधिक पैने होते थे। इनमें हत्था लगाने की भी व्यवस्था थी।
नवपाषाण युग के पत्थर के हथियारों में सबसे महत्त्वपूर्ण हत्थेदार कुल्हाड़ी है, जिसका उपयोग कृषि एवं बढ़ईगिरी दोनों में किया जाता था। इस काल में हुए आर्थिक परिवर्तनों ने सामाजिक और सांस्कृतिक दोनो जीवन को भी प्रभावित किया। जनसंख्या में वृद्धि हुई और बड़ी संख्या में बस्तियाँ बसाई जाने लगीं ।
श्रम-विभाजन, स्त्री-पुरुष में विभेद इस समय से प्रकट होने लगे। इस काल में अनेक दक्षता प्राप्त व्यावसायी वर्ग जैसे कि कुम्हार, बढ़ई, किसान, आदि अलग अलग वर्ग के रूप में तैयार होने लगे। इस काल में व्यक्तिगत सम्पत्ति की भावना के विकास ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को जन्म दिया।
पाषाण काल के प्रमुख स्थल
उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के मेहरगढ़ से कृषि एवं पशुपालन के प्रमाण मिलते हैं। उत्तरी भारत के कश्मीर में स्थित बुर्जहोम से गर्तगृहों(गड्ढे में बना घर) का प्रमाण मिला है। इन गर्तगृहों में रहने वालों के लिए नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी। दक्षिण भारत के संगनकल्लू एवं पिकलीहल से पॉलिश किये गये प्रस्तर-उपकरण और मिट्टी के हाथों से निर्मित बर्तन मिलते हैं।
पूर्वी भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण नवपाषाणिक स्थल चिरांद (जिला सारण, बिहार) है। यहाँ हिरणों के सींगों से बने उपकरण अधिक मात्रा में मिले हैं। यहाँ से टेरकोट की मानव मूर्तिकाएँ भी प्राप्त हुई है। चिरांद से चावल, गेहूँ, जौ, मूंग, मसूर आदि के खेती के प्रमाण मिलते हैं। नवपाषाणिक स्थलों में चिरांद, और बुर्जहोम दो ही ऐसे स्थल हैं, जहाँ से बड़ी संख्या में अस्थि-उपकरण पाए गए हैं।
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