Duryodhana and Karna temple ( Uttarakhand )
अनेकों पौराणिक कथाओं, मंदिरों तथा मान्यताओं को अपनी गोद में समेटे भारत देश की इस पावन भूमि पर अनेकों तीर्थ हैं। जहाँ उत्तराखंड राज्य उन तीर्थों का केन्द्र स्वरूप है। देवो की इस भूमि में देवी-देवताओं का अत्यन्त श्रद्धा-भाव से भजन-पूजन होता है तथा भक्तों की भीड़ समय-समय पर दर्शन की अभिलाषा लिए यहाँ एकत्र होती रहती है।
इसी देवभूमि में कई ऐसे मंदिर भी उपस्थित हैं, जहाँ महाभारतकालीन अधर्मी व दुराचारी दुर्योधन तथा अंगराज कर्ण को भी पूजा-भजा जाता है। धर्म-अधर्म , सत्य-असत्य, और स्वार्थ-परमार्थ से युक्त महाभारत के युद्ध से आज सभी परिचित है , कौरवों के दुराचार और छ्ल-कपल से परिपूर्ण नीति ही थी जो इस युद्ध का कारण बनी।
दुर्योधन और कर्ण की मित्रता से सब अवगत हैं, दुर्योधन के प्रति अंगराज का यह मैत्रीभाव इतना प्रबल हो गया कि वे अधर्म का साथ देने को खड़े हो गए।
उत्तरकाशी के टोंस घाटी में दुर्योधन और कर्ण के मंदिर देखने को मिलते हैं। देहरादून से करीब 95 किमी दूर चकराता और चकराता से करीब 69 किमी दूर यहाँ नेतवार नामक गाँव है। जहाँ भारतवर्ष का एकमात्र कर्ण का मंदिर मौजूद है। इस मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर जखोली गाँव स्थित है, जहाँ दुर्योधन का मंदिर है।
यहाँ दुर्योधन को देवो की ही तरह आदर-सम्मान से पूजा जाता है। लोग यहाँ दूर-दूर से आते हैं। दुर्योधन का मंदिर कर्ण के मंदिर से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर है।
निःसंदेह दुर्योधन महाभारत ग्रन्थ का एक अहम् पात्र है परन्तु उसका पूजन होना और देवभूमि में उसके मंदिर स्थापित होना यह देख कर कई लोग आश्चर्य से भर जाते हैं।
यहां निकाली जाती है शोभायात्रा

पूस महीने की पांचवीं तारीख से दुर्योधन की मूर्ति अनेकों लोगों की भीड़ के मध्य रंगों से युक्त होकर शोभायात्रा के लिए निकलती है। जो मोरी तालुका के फितारी गाँव, कोट गाँव, दतमिर होते हुए 20 दिन बाद ओसला मंदिर में लौट आती है।
इस यात्रा का संचालन ओसला मंदिर के मुख्य पुजारी तथा जौनसार-बावर क्षेत्र के कई समुदायों के मुखिया करते हैं। वहीं बता दें कि मंदिर के बगल में एक लोहे का कोठार है, जिसे स्थानीय लोग दुर्योधन का कोठार मानते हैं। लोगों का यह भी मानना है कि देहरादून नाम भी दुर्योधन से ही आया है।
यहाँ हर की दून रोड पर सौर नामक एक गाँव स्थित है। जिसका संबंध महाभारत काल के एक योद्धा भुब्रूवाहन से माना जाता है। भुब्रूवाहन पाताल लोक का राजा था। कहा जाता है कि वह कौरवों और पांडवों के मध्य कुरूक्षेत्र मेंं चल रहे इस महाभारत के युद्ध में भाग लेना चाहता था परन्तु श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध से वंचित कर दिया था।
इससे सम्बंधित कथा कुछ इस तरह से मिलती है कि श्रीकृष्ण को यह भय था कि भुब्रूवाहन अर्जुन को परास्त कर सकता है। अतः उन्होंने भुब्रूवाहन को चुनौती दी कि उसे एक ही तीर से एक पेड़ के सभी पत्तों को छेदना होगा।
श्रीकृष्ण ने उसकी नज़रों से बचा कर एक पत्ता तोड़कर अपने पैर के नीचे दबा लिया पर भुब्रूवाहन की तरकश से निकला तीर पेड़ पर उपस्थित सभी पत्तों को छेदने के पश्चात श्रीकृष्ण के पैर की ओर बढ़ने लगा तब उन्होंने अपना पैर पत्ते पर से हटा लिया।
भुब्रूवाहन ने चुनौती पूर्ण की इसके बावजूद भी श्रीकृष्ण उसे युद्ध से दूर रखना चाहते थे, उन्होंने उसे युद्ध से दूर तथा निष्पक्ष रहने को कहा परन्तु भुब्रूवाहन युद्ध में भाग लेना चाहता था।
इतना मना करने के पश्चात भी न मानने पर श्रीकृष्ण ने भुब्रूवाहन का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया, इसके बाद भी उसकी लालसा नहीं मरी तथा उसने श्रीकृष्ण से युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की तब श्रीकृष्ण ने भुब्रूवाहन की यह इच्छा पूर्ण करते हुए उसके सिर को वहाँ युद्ध क्षेत्र के पास के एक पेड़ पर टांग दिया जिससे वह महाभारत का युद्ध देख सके।
आपको बता दें कि लोगों का ऐसा भी मानना है कि जब भी महाभारत के युद्ध के दौरान कौरवों की रणनीति विफल होती थी तो भुब्रूवाहन जोर-जोर से चिल्लाकर रोता (आलाप करता) था तथा उनसे रणनीति बदलने के लिए कहता लेकिन कौरव उसके कहे अनुसार रणनीति बदलने में समर्थ न हो सके तथा इस प्रकार पांंडव वह महाभारत का युद्ध जीतने में सफल रहे।
स्थानीय लोगों के अनुसार, भुब्रूवाहन आज भी रो रहा है तथा उसी के आसुओं से टोंस नदी बनी है यही कारण है कि आज तक टोंस नदी का जल कोई भी ग्रहण नहीं करता है। दुर्योधन और कर्ण भुब्रूवाहन के बहुत बड़े प्रशंसक थे। यहाँ के क्षेत्र में आज भी इन सभी की वीरता की प्रशंसा होती है तथा गीत गाये जाते हैं।
आपकी जानकारी के लिए ये भी बता दें कि एक कथा ये भी है कि कुरुक्षेत्र में हुए इस महाभारत के युद्ध में दुर्योधन के मारे जाने के पश्चात इस गाँव के लोग इतने दुखी हुए कि कई दिनों तक रोते और आलाप करते रहे। उनके आंसुओं से ही येतमसा नदी बनी है, जिसे आज टोन्स नदी के नाम से जाना जाता है।
इसे दुःख की नदी कहते हैं तथा इसके जल से कोई पवित्र काम नहीं होता है। बैरहाल ये मंदिर ना सिर्फ उत्तराखंड की एक संस्कृतिक धरोहर है बल्कि इससे हमारा गौरवशाली इतिहास भी जुड़ा हुआ है। यही नहीं ऐसी कई धरोहरों को आज भी उत्तराखंड की भी ने संभाल के रखा हुआ है। साथ ही ये इतिहास हमे स्वयं पर नाज़ करने का भी अवसर प्रदान करता है।
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