चिपको आंदोलन भारत में हुए प्रमुख पर्यावरण आंदोलनों में से एक है। ये आजाद भारत का पहला पर्यावरण आंदोलन था। चिपको आंदोलन इतना लोकप्रिय हुआ कि जल्द ही इसे पूरी दुनिया में पहचान मिल गई। ये आंदोलन उत्तराखंड में शुरू हुआ।
चिपको आंदोलन के दौरान लोगों ने पेड़ों की सुरक्षिता के लिए उन्हें गले से लगा लिया और उनकी कटाई का विरोध किया। चिपको आंदोलन की शुरुआत सन् 1970 हुई। पेड़ों से चिपक कर वहां के स्थानीय लोगों ने प्रकृति से अपने प्रेम को प्रकट किया, इसलिए इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा।
चिपको आंदोलन हर तरह से अहिंसा और गांधीवाद पर आधारित था। इस आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने अहिंसक विरोध को ही इस आंदोलन का औजार बनाया। इस आंदोलन से जुड़े प्रमुख नेता गांधीवादी विचारों वाले थे। चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुढ़ा इस आंदोलन के सबसे प्रमुख नेता थे।
चिपको आंदोलन की वजह ( Chipko Movement )

चिपको आंदोलन की शुरू होने की परिस्थितियां उत्तराखंड में 1970 के समय आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के कारण से पैदा हुई। 1970 के दौरान उत्तराखंड में बहुत भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ से उत्तराखंड एक बड़ा सा इलाका तबाह हो गया।
इस बार की तबाही का रूप पहली से भयंकर हो गया क्योंकि पहाड़ों से नीचे आया पानी अपने साथ टनो मिट्टी बहा कर लाया और उस गाद के कारण खेत और बिजली उत्पादन बिल्कुल ही बंद हो गया।
उस क्षेत्र में हुई इस बर्बादी का सबसे बड़ा कारण पेड़ों की कटाई को माना गया। वन विशेषज्ञों ने बताया कि पेड़ों की बड़ी मात्रा में कटाई ने बाढ़ के प्राकृतिक अवरोध को खत्म कर दिया। पेड़ इस गाद को रास्ते में ही रोक लेते थे, आगे नहीं बढ़ने देते थे।
एक तरह से वे मैदानी क्षेत्र के लिए गाद की छलनी होने का काम करते थे। ये बात वहां के लोगों के सामने आते ही स्थानीय लोगों में गुस्सा फैल गया और उन्होंने वनों की कटाई को रोकने का संकल्प लिया। उस दौर में लकड़ी कटाई का संस्थानिक स्वरूप दे दिया गया था।
इस वजह से पूरे उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर अवैज्ञानिक तरीके से लकड़ी की कटाई का कार्य हो रहा था। इस कारण से लोगों में असंतोष फैला और उन्होंने लकड़ी की कटाई के खिलाफ चिपको आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की।
कानून के खिलाफ आंदोलन
चिपको आंदोलन की शुरुआत इस बात को लेकर के की गई कि तत्कालीन भारत सरकार अंग्रेजों के समय बनाए गए वन के नियमों और कानूनों को बदले। इन गलत कानूनों के कारण स्थानीय लोग पेड़ों को नहीं काट सकते थे।
लेकिन लाइसेंस धारी कंपनियों को ये अधिकार प्राप्त था। इस कानून पर लोगों का गुस्सा कई बार प्रकट हुआ लेकिन 1974 में हुई एक घटना के पश्चात इसने बड़ा रूप ले लिया।
चिपको आंदोलन उत्तराखंड के बेहद खूबसूरत जिले चमोली में शुरू हुआ। चमोली में एक विशेष पेड़ पाया जाता है, जिसे अंगु का पेड़ कहते हैं। इस अंगु पेड़ की लकड़ी बहुत ही हल्की होती है। ये जल्दी ठंडी या गर्म नहीं होती।
इस पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल स्थानीय किसान अपने हल और जुआ बनाने के लिए करते थे। हल्की लकड़ी से बने होने की वजह से बैलों को थकान नहीं होती थी।
एक समय ऐसा हुआ जब अंगु की लकड़ी को वन विभाग ने किसानों को देने से इंकार कर दिया। परंतु दूसरी ओर सरकार ने इलाहाबाद की साइमंड कंपनी को इन पेड़ों को काटने का अधिकार दे दिया। साइमंड कंपनी खेल का सामान बनाया करती थी और बल्ले बनाने के लिए अंगु की लकड़ी सबसे उत्तम थी।
चिपको आंदोलन की शुरुआत व समय
वन विभाग ने अंगु की लकड़ी स्थानीय लोगों को लेने से मना कर दिया और सरकार ने लकड़ी साइमंड कंपनी को देने को कहा है, जब इस बात का पता वहां के स्थानीय किसानों को चला तो उनमें भयंकर गुस्सा फैल गया और चंडी प्रसाद की अगुवाई में 14 फरवरी 1974 को एक सभा का आयोजन कर आंदोलन की भूमिका बनाई गई।
इसी दौरान सेना ने अपने उपयोग के लिए चमोली में किसानों की भूमि का अधिग्रहण किया। इधर किसानों ने साइमंड कंपनी और वन विभाग को ये स्पष्ट कर दिया कि वे अपने जीवित रहते अब एक भी पेड़ कटने नहीं देंगे।
26 मार्च, सन् 1974 को सेना ने जमीन का मुआवजा देने के लिए किसानों को बुलवाया। उस समय तक आंदोलन अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। जब सभी पुरुष मुआवजा लेने गए तो साइमंड कंपनी के ठेकेदार पेड़ काटने के लिए पहुंच गए।
जब ये बात गांव की स्त्रियों को पता चली तो वे तुरंत वहां पहुंच गई और पेड़ों से लिपट कर खड़ी हो गई ताकि पेड़ों को कटने से बचा सकें। यहां पर पहुंची 27 औरतों की अगुवाई गौरा देवी कर रही थीं। इसी दिन से इस ऐतिहासिक चिपको आंदोलन का आरंभ हुआ।
आंदोलन की सफलता

चिपको आंदोलन की सफलता में वहां की स्त्रियों का बहुत बड़ा योगदान था। साथ ही साथ सुंदरलाल बहुगुढ़ा ने भी अपने अहिंसक उपायों और अनशन से उत्तराखंड में इस आंदोलन को परवान चढ़ाया। चमोली में मिली शुरुआती सफलता ने पूरे उत्तराखंड को प्रभावित किया और लोग पेड़ों को कटाई से बचाने के लिए उससे लिपटने लगे।
कई स्थानों पर दमनकारी नीतियों का प्रयोग किया गया लेकिन लोगों ने अपनी जान तक की परवाह नहीं की। लोकगायकों और लोकनायकों ने भी जनता का भरपूर साथ दिया और उन्हें जोश से भर दिया।
चिपको आंदोलन की सफलता के लिए भूख हड़ताल की गई, पद यात्राओं से सभी लोगों को आंदोलन का महत्व समझाया गया। महिलाओं ने ये नारा लगाया कि जंगल हमारा मायका है और पेड़ से पहले हम को काटो। इस बीच हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया।
जिसमे सबसे अधिक संख्या में महिलाएं थीं। आखिरकार सरकार को लोगों की भावनाओं के आगे झुकना ही पड़ा और पेड़ों की कटाई पर तत्काल रोक लगा दी गई और साथ ही सरकार ने आंदोलनकारियों बातचीत भी की। आंदोलनकारियों ने सरकार के सामने अपनी कुछ मांगे रखी।
चिपको आंदोलन की मांगे
▪️वनों की कटाई की ठेकेदारी प्रथा को जड़ से समाप्त किया जाए।
▪️वन बंदोबस्त के लिए नया कानून और स्थानीय लोगों के ऊपर वनों के उपयोग पर लगी पाबंदी को खत्म किया जाए।
▪️वनों के संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था की जाए और उसे अधिक बेहतर बनाने की योजना बनाई जाए।
▪️हरे पेड़ों की कटाई पर आवश्यकता के अनुसार 10 से 25 वर्ष का प्रतिबंध लगाया जाए।
▪️हिमालय के 60 प्रतिशत हिस्से पर वनों का होना जरूर सुनिश्चित किया जाए।
चिपको आंदोलन पर सरकार का फैसला
सरकार ने आंदोलनकारियों की मांग पर 9 मई, सन् 1974 को दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण और वनस्पति विज्ञानी वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक सभा गठित की। इस सभा ने अक्टूबर 1976 को अपनी सिफारिश दी।
समिति की सिफारिशें
▪️उत्तराखंड में 1200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 10 साल तक कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया जाए।
▪️कुछ विशेष क्षेत्रों में वृक्षारोपण किया जाए।
▪️सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। साथ ही 13 हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया और वन कटाई के सभी लाइसेंस रद्द कर दिए गए। साथ ही 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पेड़ों को काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
इस आंदोलन के प्रमुख नारे
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
क्या हैं जंगल के उपकार, लीसा, लकड़ी और व्यापार
मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।
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